मुक़ल्लिदीन
का वस्वसा "अहले हदीस अंग्रेज़ की पैदावार" और उसका इलाज
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मक़बूल अहमद सलफ़ी
कई सालों से मुक़ल्लिदीन
की तरफ़ से अहले हदीस के वजूद को हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ की आमद से जोड़ने की नापाक
कोशिश की जा रही है ताकि अपने नए वजूद को लोगों की नज़रों से बचा सके। यह काम वही करता
है जिसे अपने वजूद पे भरोसा नहीं होता।
दरहक़ीक़त अहले हदीस
हिन्दुस्तान में ही नहीं पूरी दुनिया में उस वक़्त से हैं जब से इस्लाम है, यह अलग बात है हम
हक़ परस्तों की तादाद हमेशा कम रही है, इसकी वजह अल्लाह रब्बुल् इज़्ज़त ने ख़ुद बतला दी है
। व क़लीलम् मिन इबादि अश-शुकूर (अल-कुरआन) शुक्र गुज़ार बन्दे थोड़े ही होते हैं।
अहले हदीस को अंग्रेज़
की आमद से जोड़ने के वास्ते मुक़ल्लिदों की अक़ल का जनाज़ा निकल गया। एक तरफ़ तो अहले हदीस
को अंग्रेज़ की पैदावार कहते हैं दूसरी तरफ़ अहलुल हदीस मुहद्दिसीन की जमात कह कर शुरू
इस्लाम से इसका वजूद भी मानते हैं । इनकी अक़ल पे मातम किया जाए और क्या किया जाए ?
अहले हदीस का सहीह
माना और इसकी सहीह तारीख़ समझ लें ।
जैसे अहलुस् सुन्नह
से सुन्नत वाले यानी तमाम मुसलमान ख़्वाह पढ़ा हो या जाहिल मुराद हैं इसी तरह अहलुल हदीस
से हदीस पे अमल करने वाले तमाम मुसलमान ख़्वाह पढ़ा लिखा हो, ग़ैर पढ़ा लिखा मुराद
हैं । चुनांचे इमाम अहमद बिन हम्बल रहिमहुल्लाह ने फ़रमाया :
"साहिबल् हदीस इन्दना
मिन यास्तामल अल-हदीस" हमारे नज़दीक अहले-हदीस वह है जो हदीस पर अमल करता है।
(मनाक़िब अल-इमाम अहमद
बिन हम्बल लि-इब्नुल जौज़ी स 209 व सनदुहु सहीह)
मैं देवबन्दी या बरेलवी
को अंग्रेज़ की औलाद या उसकी पैदावार नहीं कह सकता अल्लाह तआला के सामने मेरी पूछ होगी
मगर इन दोनों का वजूद अंग्रेज़ी दौर से है यह बिल-यक़ीन कह सकता हूं। मुझे ताज्जुब इस
बात पे है अहले हदीस को कैसे अंग्रेज़ की पैदावार कहा जाता है ?, ज़र्रा बराबर अल्लाह
का ख़ौफ़ नहीं होता। हिन्द पे राज करने वाला अंग्रेज़ तो सरापा काफ़िर था, मुसलमान इन काफ़िर
की पैदावार कैसे हो सक्ते हैं ? शर्म नहीं आती यह बात कहते हुए ।
؎ यह मुसलमान हैं जिन्हें
देख के शर्माए यहूद
अहले हदीस के मुख़्तलिफ़
नाम हैं, इनमें सलफ़ी, मुहम्मदी, अहलुस् सुन्नह और
अस़री वग़ैरा हैं । यह सब अहले हदीस के सिफ़ाती नाम हैं जिसकी पहचान हदीस में ताइफ़े मंसूरह
बतलाई गई है। ताइफ़े मंसूरह भी एक वसफ़ी नाम है यानी निजात पाने वाली जमात। इस नाम का
भी यह मतलब नहीं कि इस्लाम से हट कर यह एक अलग फ़िरक़ा है ।
गोया अहलुल हदीस में
ब-शुमूल अव्वाम व ख़वास सहाबा, ताबईन, तबअ् ताबईन, अइम्मह और क़ियामत
तक आने वाले हामिले किताब व सुन्नत शामिल हैं। इसका दो टोक मतलब यह हुवा कि अहले हदीस
सदा से हैं । अइम्मह व मुहद्दिसीन ने अंग्रेज़ की आमद से सेकड़ों साल पहले ताइफ़े मंसूरह
को अहले हदीस बतलाया है । इमाम अहमद बिन हम्बल, इमाम बुख़ारी, इमाम अली बिन अल-मदीनी
और बहुत से अहले इल्म ने ताइफ़े मंसूरह अहले हदीस ही को क़रार दिया है।
हवाले के तौर पे देखें
: (मअ्-रिफ़ह उलूमुल् हदीस लिल-हाकिम : 2 व सह्हहु इब्न हजर अल-अस्क़लानी फ़ी फ़त्हुल्
बारी ज. 13, स 293 तहत ह 7311, मसालतु अल-इहतिजाज, बिश् शाफ़ई लिल् ख़तीब
स 47, सुनन तिर्मिज़ी मअ्
आरिज़तुल् अहवज़ी ज. 9, स 74 ह 2229)
तवालत के ख़ौफ़ से
इस बात के ज़िक्र का मौक़ा नहीं वगरना हज़ारों अहले इल्म के अक़वाल पेश किए जा सकते हैं
जिन्होंने अंग्रेज़ से सेकड़ों साल पहले जमात अहले हदीस का तज़किरा इसकी मदह सराई की है
।
एक आम तालिबे इल्म
या आम आदमी बग़ैर किताब उठाए और बग़ैर तारीख़ का पता किए यह बात कह सकता है कि ٭ देवबन्दी की इब्तिदा मदरसा देवबंद के क़ियाम से है।
٭ बरेलवी की इब्तिदा
अहमद रज़ा बरेलवी की पैदाइश के बाद से है ।
٭ और अहले हदीस की इब्तिदा
उस वक़्त से है जब से हदीस और आमिलीन बिल-किताब व अल-हदीस पाए जाते हैं ।
अरे मियाँ ! तुम अहले
हदीस की बात करते हो। अंग्रेज़ से हमारी कोई निस्बत ही नहीं, हम तो अस्ल मुसलमान
समझ कर आज़ादी हिन्द में गाजर मूली की तरह काटे गए और तुम तो वफ़ादाराने अंग्रेज़ थे, गो कि उसने तुम्हें
जनम नहीं दिया मगर तुम्हारा वजूद उसी वफ़ादार ने बाक़ी रखा क्योंकि उसका साथ जो निभाते
थे ।
मदरसा देवबंद का क़ियाम
1867 और अहमद रज़ा बरेलवी की पैदाइश 1865–इन दोनों के मअरिज़े वजूद में आने से पहले यानी उन्नीसवीं
और बीसवें सदी ईसवी से पहले फ़िरक़ा देवबन्दिय्यह और फ़िरक़ा बरेलविया का कोई वजूद ही नहीं
था। हिन्दुस्तान में गो कि पहले ही अंग्रेज़ की आमद हो गई थी मगर 1857 के बाद यहां इसका
राज क़ायम हो गया। जिसने इस राज का साथ दिया अंग्रेज़ का वफ़ादार कहलाया और जिसने मुख़ालिफ़त
की उसे ग़द्दार समझा गया और उसे क़िस्म क़िस्म की सज़ा दी गई । हमें तो मुख़ालिफ़ समझ कर
वहाबी कहा गया और हमने सीनों में अंग्रेज़ की गोलियां खाईं और अल-हम्दू लिल्लाह इस्लाम
बचाया मगर मुल्क का ग़द्दार होने के साथ, दीन से भी कुछ मुसलमानों ने ग़द्दारी की जिन्हें
इस्लामी तारीख़ कभी माफ़ नहीं कर सक्ती ।
मैं पूरे देवबन्दी
मुसलमान को मतऊन नहीं करता और ना ही कर सकता हूं । ख़ास तौर से जो अभी के देवबन्दी इनका
कोई क़सूर नहीं मगर तारीख़ी हक़ाइक़ का इनकार भी नहीं किया जा सकता जिसमें देवबंद और आले
देवबंद का अंग्रेज़ी सरकार से दोस्ताना ताल्लुक़ात मिलते हैं ।
(1) मदरसा देवबंद और अंग्रेज़ी
सरकार : जो काम बड़े बड़े कॉलेजों में हज़ारों रुपया के सर्फ़ से होता है वह यहां कौड़ियों
में हो रहा है। जो काम प्रिंसिपल हज़ारों रुपया माहानह तंख़्वाह लेकर करता है वह यहां
एक मौल्वी चालीस रुपया माहानह पर कर रहा है। यह मदरसा ख़िलाफ़े सरकार नहीं बल्कि मुवाफ़िक़े
सरकार मुमिद्द मुआविने सरकार है। (मौलाना मुहम्मद अहसन नानोत्वी, स 217)
(2) मदरसा देवबंद के कारकुनान
और अंग्रेज़ : मदरसा देवबंद के कारकुनों में अक्सरयत ऐसे बुज़ुर्गों की थी जो गवर्नमेंट
के क़दीम मुलाज़िम और हाल पेंशन्ज़ थे जिनके बारे में गवर्नमेंट को शक व शुबह करने की
कोई गुंजाइश ही ना थी। (हाश्या सवानेह क़ासमी, ज । 2, स 247)
(3) मदरसा देवबंद के बानी
और अंग्रेज़ : मौल्वी मुहम्मद क़ासिम नानोत्वी साहिब का अंग्रेज़ी मदरसा दहली से भी ताल्लुक़
रहा (तज़किरा उलमाए हिन्द फ़ारसी स 210 नौलकशोरपर
यासीन लख़नऊ 1914)
इस अंग्रेज़ी कॉलेज
का मक़्सद भी जान लें ।
"अरबी कॉलेज (दहली)
की मशीन में जो कल पुर्ज़े ढाले जाते थे इनके मुताल्लिक़ तय किया गया था कि सूरत व शक्ल
के और बैरूनी लवाज़िम के हिसाब से तो वह मौल्वी हों और मज़ाक़ व राए और समझ के ऐतेबार
से आज़ादी के साथ हक़ की तलाश करने वाली जमात हो"। (सवानेह क़ासमी, ज । ا, स 97-96)
इसी कॉलेज के तरबियत
याफ़्ता मौल्वी क़ासिम, उनके उस्ताद मम्लूक अली और मौल्वी अहसन नानोत्वी वग़ैरा थे ।
देखें । (मौलाना अहसन नानोत्वी, स 77, 25) अरवाहे सलासा, स 301) और (तज़किरा
उलमा हिन्द, स 210)
(4) मौल्वी रशीद अहमद
गंगोही और अंग्रेज़ : देवबन्दी हल्क़े के मुमताज़ मुसन्निफ़ मौल्वी आशिक़ इलाही मीरठी अपनी
किताब तज़किरतुर् रशीद में अंग्रेज़ी हुकूमत के साथ मौल्वी रशीद अहमद साहिब गंगोही के
नियाज़ मन्दाना जज़्बात की तस्वीर खींचते हुए एक जगह लिखते हैं आप समझे हुए थे कि मैं
जब हक़ीक़त में सरकार का फ़रमां बरदार हूं तो झूठे इलज़ाम से मेरा बाल बीका ना होगा और
अगर मारा भी आगया तो सरकार मालिक है इसे इख़्तियार है जो चाहे करे ।) तज़किरतु अर-रशीद
ज । 1स 80 इदारा इस्लामियात लाहौर)
(5) मौल्वी अशरफ़ अली थानवी
साहिब को सरकार बरतानिया (अंग्रेज़) से छे सौ रूपये माहवार मिला करते थे (मकालमतुस्
सदरैन सफ़ह नंबर 9, दार अल इशाअत देवबंद
ज़िला सहरानपूर)
(6) तब्लीग़ी जमात के बानी
मौल्वी इल्यास कान्धल्वी को सरकार बरतानिया (अंग्रेज़) से ब-ज़रिया लेटर पैसे मिलते थे
– (मकालमतुस् सदरैन सफ़ह
नंबर 8)
(7) जमइय्यत उलमाए इस्लाम
को हुकूमत बरतानिया (अंग्रेज़) ने क़ायम किया और इनकी इमदाद की-(मकालमतुस् सदरैन सफ़ह
नंबर 7)
हुज्जत क़ायम करने
के लिए एक ही सबूत काफ़ी होता है मगर यहां इस क़द्र सबूत मौजूद हैं कि आँखें बंद करने
से भी हक़ाइक़ ओझल नहीं होते ।
ख़ुलासा बयान करते
हुए यह कह सकता हूं कि देवबन्दी फ़िरक़ा अंग्रेज़ के दौर से मअरिज़ वजूद में आया, इस फ़िरक़े के सर करदा
उलमा व मशाइख़ की तरबियत अंग्रेज़ी इस्कूल में हुई, इस फ़िरक़े पे अंग्रेज़ों
के बे पनाह अहसानात हैं या यह कह लें कि अंग्रेज़ी साथ निभाने से इन्हें ख़ूब ख़ूब अंग्रेज़ी
इनामात मिले ।
؎ आप ही अपनी अदाओं
पे ज़रा ग़ौर करें
हम अगर अर्ज़ करेंगे
तो शिकायत होगी
बहुत माज़रत के साथ
उन नादानों के नाम जो लोगों में वस्वसा पैदा करते हैं कि अहले हदीस अंग्रेज़ की औलाद
हैं।
अब्दुस् सत्तार सा० के शुकिरिया के साथ
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